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सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो यह कहा कि धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द संविधान की मूल भावना के मुताबिक ही हैं हालांकि बाद में अदालत ने कहा कि वह 18 नवंबर से शुरू हो रहे सप्ताह के दौरान इस संबंध में विस्तार से याचिकाकर्ताओं की बात सुनेगा।
क्या संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द हटाये जायेंगे? यह सवाल इसलिए खड़ा हुआ है क्योंकि एक जनहित याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया गया है कि इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाया जाये। हम आपको बता दें कि उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और भारत के पीआईएल मैन के रूप में विख्यात अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा है कि आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने जो छेड़छाड़ की थी उसे ठीक किया जाये। अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि संविधान में संशोधन तो किया जा सकता है लेकिन उसकी प्रस्तावना से किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ गैरकानूनी है। उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि 1976 में 42वें संविधान संशोधन के जरिए प्रस्तावना में ये शब्द जोड़े गए थे। उन्होंने कहा है कि जब देश में आपातकाल लगा था और विपक्ष के सारे नेता जेल में थे तब बिना किसी चर्चा के राजनीतिक कारणों से संविधान की प्रस्तावना में यह शब्द डाले गये थे जोकि असंवैधानिक है।
हम आपको बता दें कि इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पहले तो यह कहा कि धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द संविधान की मूल भावना के मुताबिक ही हैं हालांकि बाद में अदालत ने कहा कि वह 18 नवंबर से शुरू हो रहे सप्ताह के दौरान इस संबंध में विस्तार से याचिकाकर्ताओं की बात सुनेगा। हम आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में तीन याचिकाएं दाखिल गयी हैं। इनमें अश्विनी उपाध्याय के अतिरिक्त बलराम सिंह और सुब्रमण्यम स्वामी शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान अश्विनी उपाध्याय ने खुद तर्क प्रस्तुत किये तो वहीं बलराम सिंह की ओर से उनके वकील विष्णु जैन ने कोर्ट के समक्ष अपनी बात रखी। अश्विनी उपाध्याय ने जब यह कहा कि संविधान सभा ने चर्चा के बाद यह तय किया था कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना का हिस्सा नहीं होगा तो इस पर दो जजों वाली पीठ की अध्यक्षता कर रहे जस्टिस संजीव खन्ना ने सवाल उठाया कि क्या आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहे? इस दौरान तीसरे याचिकाकर्ता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले को विस्तार से सुनना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह देखना चाहिए कि प्रस्तावना को 26 नवंबर 1949 में संविधान सभा ने स्वीकार किया था, लेकिन 1976 में उसे बदल दिया गया। उन्होंने कहा कि इस संशोधन के बाद भी संविधान की प्रस्तावना में यही लिखा है कि उसे 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया। इस बात पर जजों ने सहमति जताई कि पुरानी तारीख को बरकरार रखते हुए इस तरह नई बातें जोड़ दिए जाने के मुद्दे पर विचार करने की ज़रूरत है।
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